सोमवार, 11 जनवरी 2016

ध्यान में मन क्यों नहीं लगता है?

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जब हम संसार को समझने के चक्कर में ही उलझे रहते हैं तो ध्यान में मन नहीं लगता है। हमें अध्यात्मक के थ्योरेटिकल पक्ष के बजाय प्रैक्टिकल पक्ष पर जोर देना होगा।

जब भी हम आध्यात्मिक सफर शुरू करते हैं तो दो पक्ष हमारे सामने आते हैं। एक थ्योरेटिकल पक्ष जिसमें हम दिमाग में उठने वाले प्रश्नों का समाधान चाहते हैं। दूसरा पक्ष प्रैक्टिकल होता है जिसमें हम अनुभव के जरिए चीजों को जानते हैं।
हालांकि दोनों ही पक्षों का संतुष्ट होना जरूरी है लेकिन जीवन में ऐसा समय आता है जबकि हमें ध्यान के लिए अधिक समय देना पड़ता है ताकि हम जीवन के अनुभवों से रूबरू हो सकें। थ्योरिटकल पक्ष के लिए ज्यादा समय खर्च करने से हम ध्यान को ज्यादा समय नहीं दे पाते हैं। हालांकि हमें अपने दिमाग में उठते प्रश्नों का हल ढूंढने की जरूरत है लेकिन इस माथापच्ची में हमें इतना नहीं उलझना है कि अनुभूति की तरफ हमारा ध्यान ही न जा सके।
इस बात को ज्यादा गहराई में समझने के लिए हमें बुद्ध की कथा का सहारा लेना चाहिए। बुद्ध ने करीब 45 बरस तक अध्यात्मिक मार्ग से रूबरू कराने वाली शिक्षा दी। वे चाहते थे कि जो भी कष्ट में हैं उन्हें कष्ट से और इस दुनिया के कर्म चक्र से मुक्ति मिल सके।
करुणामय होकर बुद्ध ने अपने सुखों के बारे में न सोचते हुए मानवता की सेवा की। उन्होंने खुद को इसलिए समर्पित कर दिया ताकि लोग निर्वाण की राह पा सकें। कहते हैं कि बुद्ध हर वर्ष 12 में से 8 महीने इसलिए यात्रा करते थे ताकि लोगों को मुक्ति का मार्ग बता सकें।
वे केवल वर्षा के चार महीने यात्रा नहीं करते थे और उन दिनों एक ही जगह विश्राम करते थे। उन्होंने बिना धर्म, जाति, रंग और सामाजिक स्तर का भेद किए सभी को ज्ञान दिया। उन्होंने सभी को ज्ञान प्राप्त करने का समान अवसर दिया।
एक दिन एक अनुयायी उनका साक्षात्कार करने के लिए उनके पास आया। उसका मन चंचल था और ध्यान के समय भी उसके दिमाग में तरह-तरह के सवाल घूमते रहते थे, जैसे कि 'यह संसार निश्चित है या अनिश्चित? या क्या आत्मा मनुष्य शरीर की तरह है?'
ध्यान के जरिए मन को स्थिर करने के बजाय वह इन्हीं सवालों में उलझा रहता था। तो बुद्ध का साक्षात्कार करते हुए, उस अनुयायी ने बुद्ध को ध्यान में आने वाली रुकावटों के बारे में बताया।
अनुयायी ने कहा, 'हे प्रज्ञावान, मेरे इन सवालों का जवाब दीजिए। अगर आप इनका जवाब देते हैं तो मैं अध्यात्म के मार्ग पर बना रहूंगा। अगर आप इन सवालों के जवाब नहीं देते हैं तो मैं इस राह को छोड़ दूंगा।'
बुद्ध ने कहा, 'प्रिय शिष्य, क्या मैंने कभी तुमसे यह राह चुनने को कहा था और कभी ऐसा कोई संकल्प किया था कि मैं तुम्हारे मन की उलझनों को सुलझाऊंगा ही।अनुयायी ने कहा, 'नहीं।' बुद्ध ने तब प्रेम से समझाया, 'तुम्हारे जो भी सवाल हैं वे तुम्हें ध्यान के मार्ग से दूर ले जा रहे हैं। यह बिल्कुल उसी तरह है कि किसी व्यक्ति को तीर लगने पर वह कहे कि मैं डॉक्टर को अपना इलाज तब तक नहीं करने दूंगा जब तक कि मुझे यह नहीं मालूम हो जाता कि मुझे तीर किसने मारा।
मुझ पर तीर चलाने वाला किस तरह का व्यक्ति है और उसका रूप-रंग-जाति-धर्म क्या है। होना तो यह चाहिए कि तुम पहले उपचार लो। इसी तरह अगर हम यह कहते हैं कि हम अध्यात्म के रास्ते पर आगे तब बढ़ेंगे जब हमें मन में उठने वाले तमाम प्रश्नों के जवाब मिल जाएंगे। यह दुनिया असीम है और उसे लेकर उठने वाले प्रश्न कई हैं। तो पूरी उम्र तो इन प्रश्नों का जवाब ढूंढने में ही निकल जाएगी तो फिर अध्यात्म की राह पर आगे बढ़ना कब होगा।'
बुद्ध ने आगे कहा, 'मैं केवल यह बताता हूं कि जानने के लिए जरूरी क्या है और गैरजरूरी क्या। मैं लोगों को उनके दुखों और तकलीफों से मुक्त करना चाहता हूं। मैं उनकी मदद करना चाहता हूं कि वे अध्यात्म के मार्ग पर आगे बढ़ सकें।'
कौशाम्बी के निकट व्याख्यान देते हुए भी बुद्ध ने इसी बात को दूसरे तरीके से समझाया। उन्होंने एक पेड़ से कुछ पत्तियां तोड़ीं और शिष्यों से पूछा- 'मेरे हाथ में ज्यादा पत्तियां हैं या वृक्ष पर।' शिष्यों ने कहा, 'आपके हाथ में तो केवल कुछ ही पत्तियां हैं। वृक्ष पर निश्चित ही ज्यादा पत्तियां हैं।'
तब बुद्ध ने कहा, 'मेरी शिक्षाओं के बारे में भी यही है। मैं जितना भी जानता हूं उसका मैंने आपको बहुत थोड़ा बताया है। जो मैंने आपको नहीं बताया है वह बहुत ज्यादा है। मैंने आपको सबकुछ इसलिए नहीं बताया कि वह आपके काम का नहीं हैं। यह जानकारी आपको ज्ञान पाने में मदद नहीं करेगा। मैंने केवल आपको वही बताया है जो आपको आध्यात्मिक अनुभव और मुक्ति के लिए जरूरी है।'

                                                                        - संत राजिंदर सिंह

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