बुधवार, 13 जनवरी 2016

पहले हम खुद को पहचानें

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पहले हम खुद को पहचानें

एक व्यक्ति ने महात्मा से पूछा - 'ईश्वर का स्वरूप क्या है?" महात्मा ने उसी से पूछ लिया - 'क्या तुम अपना स्वरूप जानते हो?" व्यक्ति ने नहीं में उत्तर दिया, तो महात्मा ने कहा - 'जब तुम अब तक अपने स्वरूप को नहीं जान सके, तो इस चराचर जगत का निर्माण करने वाले ईश्वर के स्वरूप को कैसे जान सकोगे! जाओ, पहले तुम अपने आपको जान लो, तब ईश्वर को तुरंत जान जाओगे, क्योंकि ईश्वर तुम्हारे अंतर्मन में ही निहित है।"

मनुष्य का यह स्वभाव-सा बन गया है कि पहले वह दूसरी चीज को जानना चाहता है, जबकि खुद उसके पास क्या है, इससे वह अनभिज्ञ रहता है। मसलन नए साल के अवसर पर एक कार्यालय में उपहार बांटे गए। सभी कर्मचारियों ने अपना-अपना पैकेट खोला, लेकिन सभी की नजरें दूसरों के गिफ्ट पर टिकी हुई थीं। उनकी दिलचस्पी इस बात पर ज्यादा थी कि दूसरे को क्या मिला, खुद उन्हें मिले गिफ्ट को वे नजरअंदाज कर रहे थे। ऐसा क्यों?

इसका जवाब है कि अनेक लोगों के मन में लालच रूपी बुराई भरी हुई है। आज लोगों की नजरें दूसरों की थाली पर हैं, जबकि अपनी थाली के व्यंजनों का लुत्फ उठाने से वंचित रहना उन्हें मंजूर है। दूसरे की थाली में रखे रसगुल्ले को देखकर उनके मुंह में पानी आता रहता है, जबकि इसके बजाय वह अपनी थाली में रखे गुड़ को खाते, तो दूसरे का रसगुल्ला भी उन्हें फीका लगता। बात यह है कि हम यहां-वहां अच्छा-बुरा खोजने में लगे रहते हैं।

कबीरदास ने लिखा है कि बुरा तो हमारे मन में ही बैठा है, लेकिन हम उसे भगाने की बजाय पालते रहते हैं और उसकी तारीफ करते रहते हैं। भीतर बैठे उस बुरे पर प्रकाश डालिए, तब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। जब तक वहां अंधकार रहेगा, आप दुविधा में रहेंगे कि क्या अच्छा है और क्या बुरा। इसी वक्त आप सुख में रह सकते हैं और इसी पल दु:ख में। यह आप पर निर्भर करता है कि आप किस क्षण को जीना चाहते हैं। जिस ओर मन लगाएंगे, उस क्षण आप उसी चीज को जीने लगेंगे। दरअसल हम इस बात को समझ ही नहीं पाते कि नियंत्रित मन हमारे लिए कितना सार्थक सिद्ध हो सकता है।


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