सोमवार, 11 जनवरी 2016

अभिसार गा रहा हूँ

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अभिसार गा रहा हूँ

ले जाएगा कहाँ तू
मुझसे मुझे चुरा के!


पत्थर के इस नगर में
करबद्ध प्रार्थनाएँ,
इस द्वार सर झुकाएँ,
उस द्वार तड़फड़ाएँ,;
फिर भी न टूटती हैं,
फिर भी न टूटनी है,
चिर मौन की कथाएँ,
चिर मौन की प्रथाएँ,


क्यों टेरता है रह-रह
मुझे बाँसुरी बना के!


उजड़े चतुष्पथों पर
बिखरे हुए मुखौटे,
जो खो गए स्वयं से
औ’ आज तक न लौटे,
उनमें ही मैं भी अपनी
पहचान पा रहा हूँ,
संन्यास के स्वरों में
अभिसार गा रहा हूँ,


क्यों रख रहा है सपने
मेरी आँख में सजा के!

-अमृत खरे



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